रामायण, तुलसी और रामराज्य की अवधारणा

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डॉ. सत्या सिंह

डॉ. सत्या सिंह
पूर्व पुलिस अधिकारी, अधिवक्ता, काउंसलर।

2011 में भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति माननीया प्रतिभा पाटिल जी के हाथों सम्मानित हो चुकी हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की तरफ से 2017 में उन्हें ‘देवी अवार्ड’ से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने सम्मानित किया।

आपको सम्मान स्वरूप मिले मेडल, प्रशस्ति पत्र एवं पुरस्कारों से एक कमरा भरा हुआ है।

आप ताइक्वांडो चैंपियन भी हैं।

गोस्वामी श्री तुलसीदास कृत रामचरितमानस हिंदी भाषा की विलक्षण रचना है, साथ ही रामचरितमानस एक धार्मिक काव्य ग्रंथ है। इसके अध्ययन व पाठ से हमें आध्यात्मिक लाभ होते हैं।

मानस की हर पंक्ति मंत्र है, यदि इसको समझकर हम अपने जीवन में उतार लेते हैं तो ईश्वर की बेशुमार कृपा हम पर बरसती है। भारतीय राजनीतिक चिंतन में आदर्श राज्य के रूप में राम राज्य की संकल्पना हमेशा से प्रस्तुत की जाती रही है ।

रामराज्य का अभिप्राय –

राम राज्य का मतलब एक आदर्श समाज है, जो भगवान राम के शासन पर आधारित है । राम राज्य की अवधारणा एक आदर्श समाज के विचार को दर्शाती है जहाँ हर कोई समान है,और न्याय कायम है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्तियों को ही नहीं वरन समस्त प्राणियों को चाहे वे चर हो या अचर हों, समस्त सृष्टि को ही सुख और शांति का जीवन जीने का अधिकार प्राप्त होता है ।

आदर्श राज्य के रूप में रामराज्य –

प्लेटो की आदर्श राजनीतिक व्यवस्था – प्लेटो ने अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में समाज में व्याप्त हिंसक स्वार्थपरता, वर्ग संघर्ष, और कुशासन जैसी समस्याओं को दूर करने का प्रस्ताव दिया था। प्लेटो का मानना ​​​​है कि समाज के विभिन्न हिस्सों में परस्पर विरोधी हितों का सामंजस्य बनाया जा सकता है। वह जिस सर्वोत्तम, तर्कसंगत और धार्मिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रस्ताव करते हैं, वह समाज की सामंजस्यपूर्ण एकता की ओर ले जाती है और इसके प्रत्येक भाग को फलने-फूलने की अनुमति देती है, लेकिन दूसरों की कीमत पर नहीं।

रामायण तुलसी और रामराज्य- डॉ. सत्या सिंह

रामराज्य की परिकल्पना –

दोस्तों राम राज्य की परिकल्पना का मतलब है आदर्श राज्य। राम राज्य किसी एक धर्म विशेष का राज्य नहीं, बल्कि नीति और मर्यादा पर आधारित एक ऐसा राज्य जिसमें धर्म, जाति, लिंग, भाषा और क्षेत्र आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। हर व्यक्ति के पास राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता और अभिव्यक्ति का अधिकार हो साथ ही प्रेम और सद्भाव उस राज्य की नींव हो।

तभी गांधी के राम राज्य में रोहित वेमुला जैसा युवा आत्महत्या करने पर मजबूर न होगा, (रोहित वेमुला हैदराबाद यूनिवर्सिटी का दलित छात्र था, जिसने आत्महत्या कर ली थी, रोहित वेमुला नें आत्महत्या से पहले अपने आख़िरी पत्र में लिखा था कि,

“एक आदमी की कीमत उसकी तात्कालिक पहचान और निकटतम संभावना तक सीमित कर दी गई। एक वोट तक। एक संख्या तक। एक चीज़ तक। कभी भी किसी आदमी को दिमाग़ की तरह नहीं देखा गया। सितारों की धूल से बनी एक शानदार चीज़ की तरह।

हर क्षेत्र में, पढ़ाई में, सड़कों पर, राजनीति में, और मरने और जीने में। हो सकता है कि मैं हमेशा दुनिया को समझने में गलत था। प्यार, दर्द, जीवन, मृत्यु को समझने में। कोई जल्दी नहीं थी। लेकिन मैं हमेशा जल्दी में था। जीवन शुरू करने के लिए बेताब। हमेशा, कुछ लोगों के लिए, जीवन ही अभिशाप है। मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक दुर्घटना है। मैं अपने बचपन के अकेलेपन से कभी उबर नहीं सकता। मेरे अतीत का एक अनदेखा बच्चा। मैं इस समय दुखी नहीं हूँ। मैं बस खाली हूँ। खुद के बारे में बेपरवाह हूँ। यह दयनीय है। और इसीलिए मैं यह कर रहा हूँ।”

और उसका विरोध और विसम्मति देशद्रोह न कहलाएगा तथा छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की बेरहमी से हत्या नहीं कर दी जाएगी और लेखकों, पत्रकारों और इतिहासकारों की सोच पर पहरा न होगा।

गांधी जी के शब्दों में रामराज्य –

गांधी जी ने 1929 में यंग इंडिया में लिखा था कि –

“राम राज्य से मेरा अर्थ सिर्फ़ हिंदू राज्य से नहीं है बल्कि मेरा मतलब है, ईश्वरीय राज, भगवान का राज्य।

चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर रहे हों या नहीं, राम राज्य का प्राचीन आदर्श नि:संदेह एक ऐसे सच्चे लोकतंत्र का है जहाँ सबसे कमजोर नागरिक भी बिना किसी लंबी और महंगी प्रक्रिया के जल्द-से-जल्द न्याय मिलने के प्रति आश्वस्त हो। मेरे सपनों का राम राज्य राजा और रंक को बराबर का अधिकार देगा।”

रामचरित मानस में भी राम राज्य की व्याख्या गांधी की परिभाषा से ही मेल खाती है। गांधी का धार्मिक बोध भी निराला था। रामराज का अर्थ है जैसा राज भगवान राम के वक्त था वैसा राज। इसका मतलब है कि भगवान राम के राज में हर किसी को अपना मत रखने का अधिकार था चाहे वो दोषी ही क्यो न हो।

ऐसे राज्य में हर किसी को अपनी बात रखने की पूर्णतः स्वतंत्रता होगी चाहे वो अमीर हो या गरीब, न्याय विधान सब के लिए एक समान होगा और हर किसी को राज करने वालो (सरकार) द्वारा दिए गए लाभ का बराबर फायदा मिलेगा और हर किसी की समस्या का निवारण होगा।

आदर्श राजा –

‘रामराज्य’ यह शब्द उस आदर्श राजा का प्रतिनिधित्व करता है जिसने बुद्धि, करुणा और न्याय के साथ शासन किया।

उनका मानना ​​था कि सभी व्यक्तियों को, चाहे उनकी जाति, पंथ या लिंग कुछ भी हो, समान अवसर और अधिकार मिलने चाहिए। राम राज्य एक ऐसा समाज था जहाँ न्याय किया जाता था, और कोई भी कानून से ऊपर नहीं हो सकता । व्यक्तियों को आर्थिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से आत्मनिर्भर बनने के लिए काम करना चाहिए, ताकि समाज में अन्याय को दूर करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार हो सकें। राम राज्य एक ऐसा समाज था जहाँ हिंसा का त्याग किया जाता था, और संघर्षों को शांतिपूर्ण तरीकों से सुलझाया जाता था। राम राज्य एक ऐसा समाज था जहां लोग स्वशासित थे और उनके पास अपने जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णय लेने की शक्ति थी। वहाँ सभी की जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुँच थी और अपने सपनों को पूरा करने का अवसर तथा अधिकार था।

नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य –

रामराज्य एक नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित समाज था जो सत्य, प्रेम, करुणा और क्षमा पर आधारित था जिसमें व्यक्ति दूसरों की सेवा करने के लिए विवेक का पालन करता है , स्वार्थ के लिए नहीं। आर्थिक असमानता सामाजिक अशांति का मूल कारण है इसलिए जाति व्यवस्था के उन्मूलन और आर्थिक समानता पर आधारित समाज की स्थापना होनी चाहिए। समाज के विकास के लिए आत्मनिर्भरता भी बहुत ज़रूरी है। जिसके लिए समाज में छोटे पैमाने के उद्योगों की स्थापना और स्थानीय संसाधनों के इस्तेमाल की व्यवस्था के साथ ही लोगों में इसके उपयोग की दृढ़ता भी होनी चाहिए। एक महत्वपूर्ण कारक यह भी है कि समाज में शिक्षा, व्यक्ति और समाज के विकास के लिए बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि इससे बौद्धिक और नैतिक दोनों विकास होता है।

आदर्श समाज के अन्य सिद्धांत –

कई अन्य दार्शनिकों और विचारकों ने भी रामराज्य की अवधारणा में आदर्श राज्यों और शासन प्रणालियों की कल्पना की है। प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में एक आदर्श न्यायपूर्ण समाज का प्रस्ताव रखा, जहाँ राजा दार्शनिक होते हैं और दार्शनिक राजा होते हैं। उन्होंने तर्क, न्याय, साहस और संयम पर आधारित राज्य की कल्पना की। उनके अनुसार राजा, शासक और संरक्षक के रूप में नागरिकों के कल्याण को अधिकतम करने के लिए शासन करते हैं।

शासन का उदारवादी स्वरूप –

अपनी रचना ‘ऑन लिबर्टी’ में जॉन स्टुअर्ट मिल ने शासन के उदारवादी स्वरूप की वकालत की है जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सामाजिक भलाई के साथ संतुलित किया जाता है। उन्होंने सभी नागरिकों के प्रतिनिधित्व, मुक्त भाषण और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के साथ लोकतांत्रिक स्वशासन का भी प्रस्ताव रखा है। उनके अनुसार राज्य लोगों की बुनियादी स्वतंत्रता और कल्याण की रक्षा करता है।

अपने निबंध ‘सविनय अवज्ञा’ में हेनरी डेविड थोरो ने भी न्यूनतम शासन का विचार प्रस्तुत किया। उनका मानना ​​था कि रामराज्य की आवधारणा के तहत वह सरकार सबसे अच्छी होती है, जो कम से कम शासन करती है तथा उसका व्यक्तिगत विवेक ही नैतिक मार्गदर्शक होता है। एक सच्चाई यह भी है कि ज़ब सभी लोग आत्म-संयम के साथ खुद पर शासन करते हैं तो उन्हें किसी दबंग राज्य तंत्र की आवश्यकता नहीं होती और ऐसे में सादा जीवन और उच्च विचार को महत्व दिया जाता है।

लियो टॉलस्टॉय –

‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू’ में लियो टॉल्स्टॉय ने भी आदर्श समाज के बारे में एक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जिसमें हिंसा का त्याग किया गया है और सार्वभौमिक प्रेम, सत्य, नैतिकता और दूसरों की सेवा का उपदेश दिया गया है। उनका मानना ​​था कि व्यक्ति राजनीतिक साधनों से नहीं, बल्कि ज्ञान और नैतिक विकास के माध्यम से समाज को बदल सकते हैं। भौतिक प्रगति नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान ही मानव कल्याण की ओर ले जाता है।

अरबिंदो घोष के विचार –

अरबिंदो घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता में हुआ था। वह एक योगी, द्रष्टा, दार्शनिक, कवि और भारतीय राष्ट्रवादी थे जिन्होंने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से संसार को ईश्वरीय अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार किया अर्थात् नव्य वेदांत दर्शन को प्रतिपादित किया। उन्होंने अपने काम में ‘आत्मा के शासन’ का सिद्धांत दिया, जहाँ आंतरिक नैतिक और आध्यात्मिक तत्व समाज को नियंत्रित करते हैं, न कि बाहरी राजनीतिक तंत्र। सत्य, एकता, सद्भाव और उच्च चेतना व्यक्तियों के भीतर से उभरती है। प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता को महसूस करने की एक सामूहिक नैतिक आकांक्षा है, जो रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने के लिए ज़रूरी है।

राधाकृष्णन की परिकल्पना –

. अपने ‘आध्यात्मिक सत्य के नियम’ में सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी विश्वास करते थे कि जहाँ तर्क, नैतिकता और न्याय की जीत होती है तथा शिक्षा समग्र व्यक्तित्व का विकास करती है वही रामराज्य है। उन्होंने मानवता की एकता के आध्यात्मिक सत्य द्वारा निर्देशित स्वतंत्र समाजों में स्वतंत्र व्यक्तियों के विश्व संघ की कल्पना की थी।

आध्यात्मिक लोकतंत्र –

दलाई लामा एक ‘आध्यात्मिक लोकतंत्र’ की वकालत करते हैं, जहाँ करुणा, नैतिकता और विवेक समाज को आकार देते हैं। बहुसंख्यकों का कोई अत्याचार नहीं है। भविष्य की पीढ़ियों सहित सभी मनुष्यों की भलाई मुख्य है। बाहरी उदार मूल्य प्रत्येक व्यक्ति में आंतरिक नैतिकता और ज्ञान से उभरते हैं जो रामराज्य की आधारशिला है।

तुलसीदास का आदर्श रामराज्य –

गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य की कल्पना की थी। उन्होंने राजा के लिए कुछ गुणों का उल्लेख किया था, जैसे कि लोकहित में नीतियां बनाना, धर्मशील होना, प्रजापालक होना, और दानशील होना। गोस्वामी तुलसीदास के रामराज्य की अवधारणा में ये दो लाइनें मील का पत्थर लगती हैं –

“नहि दरिद्र कोउ दुखी न दीना ।
नहि कोउ अबुध सुलच्छन हीना।”

रामराज्य की अवधारणा की चर्चा गोस्वामी तुलसीदास नें ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में की है। रामराज्य की अवधारणा में जहाँ एक ओर राजनैतिक प्रगतिशीलता के तत्व विद्यमान हैं तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक चेतना भी खुलकर सामने आती है।

“रामायण तुलसी और रामराज्य” में तुलसीदास द्वारा प्रस्तुत आदर्श शासन-व्यवस्था 'रामराज्य' के दर्शन

मानस के रामराज्य की विशेषता –

इसकी सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि आप ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ सब लोग सुखी हों, कोई गरीब न हो, सभी साक्षर हों तथा किसी को कोई रोग न हो जैसे –

“अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥”

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र सुख शांति व्याप्त हो गयी थी। सारे भाइयों के शोक दूर हो गए थे। एवं दैहिक दैविक और भौतिक पापों से मुक्ति मिल गई थी ।कोई भी अकाल मृत्यु, रोग, पीड़ा से ग्रस्त नहीं था। सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, कृतज्ञ व ज्ञानी थे।
तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में यह भी लिखा है कि –

“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सोइ नृप अवइ नर्क अधिकारी।”

अर्थात जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी है और अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रही है तो निश्चय ही वह राजा नर्क का अधिकारी है। बाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस में पर्यावरण संबंधी विशेषताओं का भी उल्लेख किया गया है। वैसे वर्तमान में वानिकी का जो सिद्धांत ‘प्रिसिपल ऑफ सस्टेंड यील्ड’ (सतत उपज सिद्धांत के मुताबिक, किसी संसाधन की वह मात्रा जो बिना ज़्यादा कटाई किए या संसाधन को नुकसान पहुंचाए प्राप्त की जा सकती है, उसे सतत उपज कहते हैं. सतत उपज का इस्तेमाल आम तौर पर वानिकी और मत्स्य पालन में किया जाता है. यह दीर्घकालिक संसाधन पुनर्जनन की अनुमति देता है)

राम राज्य में चारा की कमी न होने से गाय पर्याप्त दूध देती थी और यही कारण था कि सभी लोग स्वस्थ और निरोग थे। रामराज्य में सभी नदियां शुद्ध, निर्मल, शीतल पेय जल से परिपूर्ण थी। उस समय न जल प्रदूषण था न वायु प्रदूषण और ना ही मृदा प्रदूषण था जिसके फलस्वरूप लोग बीमार नहीं होते थे एवं धरती हरी भरी थी। इससे किसान संपन्न थे और राज्य समृद्धिशाली था। अभाव व गरीबी का नामोनिशान नहीं था।

गुरुकुल –

उस समय शिक्षा के केंद्र गुरुकुल, समाज से दूर प्राकृतिक वातावरण में होते थे, जहाँ शिक्षार्थियों को स्वावलम्बन के साथ-साथ नैतिक ज्ञान की शिक्षा और अन्य विषयों की शिक्षा युद्ध कला आदि की शिक्षा दी भी जाती थी। उस माहौल में समाज की बुराइयों का असर शिक्षार्थियों पर नहीं पड़ता था। वह बड़े होकर ज्ञानी, विद्वान, गुणवान नीतिज्ञ और शौर्यवान होकर वापस समाज में लौटते थे।

रामराज्य एक आदर्श राज्य –

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं रामराज्य का अर्थ तो यही था कि जहाँ किसी भी प्रकार का भेदभाव राजा द्वारा नहीं किया जाता था, वहाँ का वातावरण, जल, मृदा, वायु सब पूर्णतया सुरक्षित थे।

कृषि, गोधन, फल, फूल पशुधन आदि से परिपूर्ण रामराज्य था। जिसके कारण समृद्धि थी, खुशहाली थी, एवं लोग संपन्नता के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ थे और इसीलिए आपस में ईर्ष्या द्वेष कम था, जलन कम थी झगड़े कम थे नफरतें नही थीं।

लोग बाहर से गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने आते थे जिसमें नैतिक शिक्षा और स्वावलम्बन पर विशेष बल दिया जाता था जो व्यक्ति को आर्थिक व भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता था। कुल मिलाकर एक दूसरे के प्रति प्रेम था, समर्पण था, प्यार था, देश प्रेम था, गुरु प्रेम था, परिवार प्रेम था, सेवा भाव था एवं कृतज्ञता भी थी,और यही रामराज की अवधारणा का प्रमुख तत्व था, है, और सदैव रहेगा ।

रामचरितमानस के रामराज्य की विशेषता –

अगली विशेषता यह है कि इसमें राजा के उत्तरदायित्व के साथ ही प्रजा के कर्तव्यों का भी निर्धारण किया है। कहा गया है कि, राजा ऐसा होना चाहिए जो प्रजा के हित में काम करे तथा प्रजा का यह कर्तव्य बनता है कि अगर राजा कोई अनीति करे तो प्रजा उसको रोकने का प्रयास करे।

“सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौं मोहि बरजहु भय बिसराई॥”

इसी के साथ रामराज्य में चहुँ ओर वर्णव्यवस्था के नियमों का पालन भी शामिल है। जब सभी लोग वेद मार्ग पर चलेंगे तब किसी को कोई रोग, भय या शोक परेशान नहीं करेगा।

“बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥”

साथ ही राम राज्य में कोई भी व्यक्ति ताप-संताप से दुखी नहीं है। सभी अपने धर्म के अनुसार अपना कर्म कर रहे हैं।

“दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥”

नारी पुरुष समानता की बात –

तुलसी के रामचरित मानस में रामराज्य की अवधारणा में नारी और पुरुष की समानता पर भी बल दिया गया है –

“एक नारिव्रत रत सब झारी।
ते मन बच क्रम पति हितकारी”।

सोचने की बात है कि रामचरित मानस की रचना आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी। तत्कालीन समाज सामन्तवादी था और वर्तमान में लोकतांत्रिक व्यवस्था अस्तित्व में है। तत्कालीन समय की तुलना में अब सामाजिक संरचना के साथ ही परिस्थितियों में भी आमूल चूल परिवर्तन आ चुका है। वर्तमान समय में राम राज्य एक परिकल्पना है, एक सोच है, और एक विचार है।

भारत एक धार्मिक देश न होकर सभी धर्मों के लिए समभाव वाला देश है आजादी के बाद से ही, जबकि उसी समय आज़ाद हुआ पाकिस्तान एक कट्टरपंथी और धार्मिक देश है। वहाँ अल्पसंख्यक लोगों को समान अधिकार नहीं है, बल्कि उन पर कठोर विधर्मी क़ानून लागू कर उनका अब भी उत्पीड़न हो रहा है।

रामराज्य को आदर्श शासन या सर्वोत्कृष्ट शासन का प्रतीक माना जाता है। यह एक ऐसा आदर्श समाज है जहां हर कोई समान है, और न्याय कायम है। रामराज्य में सभी लोग सुखी होते हैं और कोई दुखी नहीं होता। राम राज्य की अवधारणा किसी धार्मिक संकीर्णता की द्योतक नहीं है, बल्कि एक जनहितकारी अवधारणा है जिस पर गंभीर मनन व चिंतन की आवश्यकता है।

आज का समय –

रामराज्य मे स्वाभाविक रूप से प्रकृति प्रदत्त उपहारों का उपयोग ही रामराज्य का आदर्श है। परन्तु आज का मानव जिन विसंगतियों और विडंबनाओं का सामना कर रहा है वह रामराज्य का उल्टा है। आज के परिवेश में समाज अनेक वर्गों और वर्णों में विभाजित हो चुका है, मानव मानव के बीच विषमता शिखर पर पहुंच गई है और यह समाज एक दूसरे के प्रति घृणा से परिचालित हो रहा है तथा पूरे संसार में इन दिनों भावनात्मक एकता की कमी हो गई है।

रामराज्य में राजा की निष्पक्षता –

राजा द्वारा किसी तरह का पक्षपात नही था। समदर्शी होना राजा होने का सबसे महत्वपूर्ण स्वरूप माना जाता था ऐसे में आज फिर से इस व्यवस्था की बहुत बड़ी आवश्यकता है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि तुलसीदास जी के कुछ विचार अप्रासंगिक प्रतीत हो सकते हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि रामराज्य की अवधारणा के अधिकांश तत्व अतीत में प्रासंगिक थे। वर्तमान में प्रासंगिक होने के साथ ही भविष्य के लिए दूरदर्शी भी हैं।

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