डॉ. सत्या सिंह
घरों की नींव (बुजुर्ग), जिन्हें उपेक्षा का दीमक हिला रहा,पितृपक्ष में विचार करें –
बचपन में हम सबने सुना है—
“बुजुर्ग घर की छाया होते हैं।”
उनकी उपस्थिति घर को घर बनाती है। उनकी झुकी हुई कमर में अनुभव की गाथाएँ होती हैं और उनके काँपते हाथ आशीर्वाद की शक्ति से भरे होते हैं। पर आज की सच्चाई यह है कि जिस पीढ़ी ने हमारे लिए अपना जीवन खपा दिया, उसी पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा वृद्धाश्रमों में अकेला पड़ा है। आजकल पितृपक्ष चल रहे हैं पर क्या औचित्य है पितृपक्ष मनाने का ?
पितृपक्ष में पितरों को याद करते हुए, अपने साथ रह रहे बुजुर्गों की सोचें –
प्रश्न यह उठता है कि आख़िर क्यों हमारे अपने, हमारे बीच रहकर भी, परायों के बीच जाने को विवश हो जाते हैं? आजकल जब पितृपक्ष चल रहे हैं, तो उन पितरों को हम सम्मान अवश्य दें। उन्हें याद करें, जो गोलोकवासी हो गए, लेकिन क्या जो हमारे बुजुर्ग हमारे साथ हैं, क्या उन्हें हम वह सब कुछ दे पा रहे, जिसके वे हकदार हैं ? क्या पितृपक्ष में इस प्रश्न का जवाब नही मिलना चाहिए ?
वृद्धाश्रम : सुविधा या विवशता? –
वृद्धाश्रम का विचार मूलतः सहारा देने के लिए बना था—उन बुजुर्गों के लिए जिनके पास कोई परिजन नहीं या जो असहाय हैं। यहाँ उन्हें रहने, खाने और देखभाल की सुविधा मिलती है, परंतु आज यह केवल सुविधा का केंद्र न रहकर, पारिवारिक बिखराव की सच्चाई भी बन गया है। जिन बुजुर्गों ने अपने बच्चों को पाला-पोसा, शिक्षित किया, घर-आँगन सजाया, वही आज वृद्धाश्रम के दरवाज़े पर छोड़ दिए जाते हैं।
क्या यह सच में उनकी जरूरत है या यह हमारी संवेदनहीनता का प्रमाण? पितृपक्ष में इस बार एक नए तरीके से सोचें।
हमारे अपने : बदलते रिश्तों की परछाई – पितृपक्ष विशेष
संयुक्त परिवार से एकल परिवार –
संयुक्त परिवार टूटे और शहरों की दौड़ ने हर व्यक्ति को अपनी ही दुनिया तक सीमित कर दिया।
करियर और महत्वाकांक्षा –
बच्चे नौकरी और करियर की व्यस्तता में माता-पिता को समय नहीं दे पाते।
जीवनशैली और आधुनिकता-
कुछ लोगों को लगता है कि बुजुर्ग उनके “मॉडर्न” जीवन में बाधा हैं।
जिम्मेदारी से बचाव और कहीं-कहीं तो यह केवल जिम्मेदारी से बचने का एक आसान रास्ता बन जाता है—“वृद्धाश्रम छोड़ दो, देखभाल हो जाएगी।”
लेकिन सच यही है कि बुजुर्ग केवल भोजन और दवा के लिए नहीं तरसते। वे तरसते हैं अपनेपन और स्नेह के लिए। पितृपक्ष में जीवित पितरों के लिए कुछ ऐसा करें कि वे किसी बात के लिए भी तरसें न ।
भावनात्मक पीड़ा –
वृद्धाश्रम में रह रहे एक बुजुर्ग की आँखें बहुत कुछ कह देती हैं। वे भले बाहर से शांत दिखें, पर भीतर टूट चुके होते हैं। उन्हें यह दुख सताता है कि जिनके लिए उन्होंने जीवन भर मेहनत की, वही आज उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते।
उनकी पीड़ा यह नहीं होती कि उन्हें वृद्धाश्रम भेजा गया, बल्कि यह होती है कि
“अपने ही बच्चों के बीच मैं पराया क्यों हो गया?”
समाधान : गरिमा और अपनापन –
परिवार की भूमिका –
बच्चों को बचपन से यह सिखाना होगा कि माता-पिता का सम्मान जीवनभर की जिम्मेदारी है।
घर में बुजुर्गों की उपस्थिति को बोझ नहीं, आशीर्वाद माना जाए।
समाज की भूमिका –
समाज में जागरूकता फैलाई जाए कि वृद्धाश्रम केवल अंतिम विकल्प होना चाहिए।
समुदाय स्तर पर ऐसे केंद्र हों जहाँ बुजुर्ग दिन का समय साथ बिता सकें, पर रात परिवार के साथ ही।
सरकार और नीतियाँ –
वृद्धाश्रमों में सुविधाएँ और सम्मानजनक माहौल हो, ताकि यदि कोई वहाँ रहे भी तो गरिमा के साथ। बच्चों पर कानूनी दायित्व सुनिश्चित किया जाए कि वे माता-पिता की देखभाल करें। वृद्धाश्रम बुरे नहीं हैं, वे उन लोगों के लिए आश्रय हैं जिनके पास कोई नहीं, परंतु जिनके “अपने” हैं, उनके लिए वृद्धाश्रम विवशता और हमारी संवेदनहीनता का प्रतीक है।
सच तो यह है कि—
वृद्धाश्रम में रह रहा हर बुजुर्ग केवल अकेला नहीं होता, उसके साथ कहीं न कहीं हमारी आत्मा का भी एक टुकड़ा अकेला हो जाता है। आज हमें यह सोचना होगा कि कल जब हम स्वयं बूढ़े होंगे, तो क्या हम भी यही चाहते हैं? यदि उत्तर “नहीं” है, तो अभी से अपने बुजुर्गों को घर का सबसे गरिमामय स्थान देना होगा।
समाज की आत्मा –
उसके बुजुर्गों में बसती है। वे परिवार और संस्कृति की जड़ों के समान हैं, जिनसे नई पीढ़ियाँ पोषण और प्रेरणा प्राप्त करती हैं, किंतु विडंबना यह है कि आधुनिकता, भागदौड़ और आत्मकेंद्रित जीवन शैली ने बुजुर्गों की भूमिका को हाशिए पर डाल दिया है। एक समय था जब घर के आँगन में बुजुर्गों का अनुभव सबसे बड़ा मार्गदर्शक होता था, उनकी उपस्थिति पूरे परिवार के लिए संबल मानी जाती थी। आज वही बुजुर्ग उपेक्षा, एकाकीपन और असुरक्षा के बीच जीने को विवश हैं।
ऐसे समय में यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बुजुर्गों के जीवन में गरिमा कैसे लौटाई जाए? गरिमा लौटाना केवल सामाजिक कर्तव्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रयास भी है। आइए, इस संदर्भ को विभिन्न आयामों में समझने का प्रयास करें –
पारिवारिक स्तर पर गरिमा की स्थापना –
बुजुर्गों की गरिमा सबसे पहले परिवार से जुड़ी होती है।
सम्मान और संवाद –
परिवार के सदस्य उनके अनुभव और विचारों को सुनें, उन्हें निर्णयों में शामिल करें। घर के छोटे–बड़े फैसलों में उनका मत लेना उन्हें आत्मीयता और महत्व का अनुभव कराता है।
साथ और स्नेह –
अधिकांश बुजुर्ग इस कारण दुखी रहते हैं कि उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं होता। दिन में कुछ समय केवल उनसे बातचीत के लिए निकालना उनकी सबसे बड़ी ज़रूरत है।
भूमिका का निर्धारण –
बच्चों को संस्कार सिखाने, कहानियाँ सुनाने या पारंपरिक ज्ञान बाँटने जैसी भूमिकाओं में उन्हें सक्रिय रखना उनकी गरिमा को बनाए रखता है।
सामाजिक स्तर पर गरिमा का पुनर्निर्माण –
समाज की संवेदनशीलता ही बुजुर्गों की सुरक्षा और सम्मान का आधार है।
वरिष्ठ नागरिक क्लब –
सामुदायिक स्तर पर ऐसे केंद्र बनाए जाएँ जहाँ बुजुर्ग मिल-जुलकर समय बिता सकें, अपनी रुचियों और शौकों को आगे बढ़ा सकें।
जन-जागरूकता –
मीडिया, शिक्षा और सामाजिक अभियानों के माध्यम से यह संदेश फैलाना आवश्यक है कि बुजुर्ग समाज की धरोहर हैं, बोझ नहीं।
स्वास्थ्य सुविधाएँ –
समाज और स्थानीय संस्थाएँ नियमित स्वास्थ्य शिविर, योग और ध्यान जैसी गतिविधियों का आयोजन करें। इससे न केवल उनका स्वास्थ्य सुधरेगा बल्कि आत्मसम्मान भी बढ़ेगा।
आर्थिक सुरक्षा और आत्मनिर्भरता –
गरिमा तभी संभव है जब बुजुर्गों के पास आत्मनिर्भरता का आधार हो।
पेंशन और बीमा योजनाएँ –
सरकार द्वारा दी जाने वाली पेंशन और स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का समय पर और सरल उपलब्ध होना आवश्यक है।
रोज़गार और कौशल –
जो बुजुर्ग सक्षम हैं, उन्हें आंशिक समय के लिए कार्य के अवसर दिए जाएँ। इससे वे न केवल आत्मनिर्भर रहेंगे बल्कि समाज को भी लाभान्वित करेंगे।
डिजिटल साक्षरता –
बुजुर्गों को डिजिटल युग से जोड़ना भी गरिमा लौटाने का साधन है। यदि वे मोबाइल बैंकिंग, ऑनलाइन संवाद और सरकारी सेवाओं का उपयोग कर सकें, तो उन्हें असहाय महसूस नहीं होगा।
भावनात्मक और मानसिक सहारा –
स्नेहपूर्ण व्यवहार –
बच्चों और युवाओं का स्नेहपूर्ण व्यवहार ही बुजुर्गों की मानसिक शांति का आधार है। कठोर शब्द या उपेक्षा उनकी आत्मा को गहरी चोट पहुँचाती है।
काउंसलिंग और सहायता –
मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। परिवार या समाज में परामर्श सेवाएँ उन्हें अकेलेपन और अवसाद से बाहर निकाल सकती हैं।
आध्यात्मिक आधार –
ध्यान, प्रार्थना और सांस्कृतिक गतिविधियाँ बुजुर्गों को जीवन की सार्थकता का अनुभव कराती हैं।
सरकारी और कानूनी पहल : वरिष्ठ नागरिक अधिकार –
कानून बुजुर्गों को संरक्षण देने के लिए है, पर जागरूकता कम है। उन्हें यह जानकारी होनी चाहिए कि वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कहाँ जा सकते हैं।
आवास और देखभाल केंद्र –
सरकार और सामाजिक संस्थाएँ ऐसे केंद्र विकसित करें जो आश्रम न होकर ‘गरिमा गृह’ हों—जहाँ बुजुर्ग सम्मानपूर्वक, स्वतंत्र और सुखपूर्वक रह सकें।
यातायात और सार्वजनिक सुविधाएँ –
बसों, रेलों और सार्वजनिक स्थलों पर बुजुर्गों के लिए विशेष व्यवस्था उनकी गरिमा और सुविधा दोनों को सुनिश्चित करती है।
सांस्कृतिक दृष्टि –
भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों को सदैव पूज्य माना गया है। ‘मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः’ का भाव केवल पूजा का आदेश नहीं, बल्कि यह मान्यता है कि बुजुर्ग हमारे जीवन के लिए देवतुल्य हैं। इस सांस्कृतिक धरोहर को पुनर्जीवित करना अत्यावश्यक है। बच्चों को प्रारंभ से ही यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि बुजुर्गों की सेवा केवल जिम्मेदारी नहीं, बल्कि सौभाग्य है। बुजुर्गों की गरिमा लौटाना केवल एक वर्ग की समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज की आत्मा को स्वस्थ करने का प्रयास है।
आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा –
यदि हम अपने परिवारों में, सामाजिक संस्थाओं में, सरकारी नीतियों में और व्यक्तिगत जीवन में बुजुर्गों को स्थान और सम्मान देंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ भी हमारी गरिमा लौटाने में संकोच नहीं करेंगी।
गरिमा लौटाने का अर्थ –
यह है कि उन्हें बोझ न समझना, उनकी बात सुनना, उनके अनुभव को मान्यता देना, और उन्हें यह एहसास कराना कि वे अब भी जीवन के लिए उतने ही आवश्यक हैं जितने पहले थे। जिस समाज ने अपने बुजुर्गों को सम्मान और गरिमा दी, वही समाज भविष्य में उज्ज्वल और समृद्ध हुआ। अतः हमें अब यह संकल्प लेना होगा कि हम अपने घर, परिवार और समाज में बुजुर्गों की गरिमा लौटाएँगे, ताकि उनकी मुस्कान ही हमारे जीवन की सबसे बड़ी आशीष बने। आइये इस पितृपक्ष को एक नए संकल्प के साथ मनाएं।

