नवरात्रि पर्व –
नवरात्रि का पर्व भारतीय संस्कृति की आत्मा से जुड़ा है। नौ दिनों तक देवी के नौ रूपों की भक्ति का उत्सव चलता है। घर-घर में व्रत, पाठ और अनुष्ठान होते हैं। लोग मानते हैं कि दुर्गा की आराधना से जीवन की सभी विपत्तियाँ दूर होती हैं। किंतु यह सोच केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित रह जाती है। जब वही घर अपनी बेटी को समान अवसर नहीं देता, तो पूजा का सारा औचित्य खो जाता है।
देवी की प्रतिमा को सजाने वाले हाथ बेटियों के सपनों को तोड़ने में भी देर नहीं लगाते। यही विरोधाभास हमारे सामाजिक ढाँचे की सबसे बड़ी विडम्बना है।
कन्या – पूजन –
नवरात्रि का सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान कन्या पूजन है। मासूम बच्चियों को देवी का रूप मानकर उनके चरण धोए जाते हैं, उन्हें भोजन और वस्त्र दिए जाते हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में वही बच्चियाँ भेदभाव, उपेक्षा और हिंसा की शिकार होती हैं।
आँकड़े बताते हैं कि भारत में आज भी कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएँ दर्ज होती हैं। कहीं जन्म से पहले ही बेटियों को मिटा दिया जाता है, तो कहीं जन्म लेने के बाद उन्हें अस्पतालों, नालों और कूड़े के ढेरों पर फेंक दिया जाता है। यह अमानवीयता हमारे समाज का वह घिनौना चेहरा है, जो नवरात्रि की सजावट और भक्ति के शोर में दब जाती है।
देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना –
नवरात्रि के दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी की पूजा होती है। यह स्वरूप तप और त्याग का प्रतीक है। किंतु समाज में यदि कोई कन्या उच्च शिक्षा या आत्मनिर्भरता के लिए परिश्रम करना चाहती है, तो अक्सर उसे रोका जाता है। उसे यह कहकर दबा दिया जाता है—”लड़की होकर इतनी जिद क्यों?” इस मानसिकता का असर यह है कि अनेक कन्याएँ शिक्षा से वंचित रह जाती हैं।
कुछ परिवार तो बेटी को बोझ समझकर जन्म लेते ही उसे परित्यक्त कर देते हैं। समाचार पत्रों में आए दिन यह खबरें पढ़ी जाती हैं कि कोई नवजात बच्ची कूड़े के ढेर में पाई गई। एक ओर समाज कन्या को दुर्गा का रूप मानता है, दूसरी ओर उसकी मासूम साँसों को दम घोंटकर खत्म कर देता है।
चंद्रघंटा और कूष्मांडा देवी की उपासना –
नवरात्रि के तीसरे और चौथे दिन चंद्रघंटा और कूष्मांडा की उपासना होती है। ये स्वरूप शांति और सृजन शक्ति के प्रतीक हैं। भक्तगण देवी के सौम्य और ऊर्जा-मय रूप का गुणगान करते हैं।
लेकिन वास्तविक जीवन में वही समाज स्त्री की ऊर्जा को स्वीकार नहीं करता। घर की बहू अगर कामकाजी है तो उस पर ताने कसे जाते हैं, बेटी अगर आगे बढ़ना चाहती है तो कहा जाता है “लड़कियों की इतनी उड़ान अच्छी नहीं।” यह वह विरोधाभास है जहाँ पूजा और व्यवहार एक-दूसरे से टकराते हैं।
देवी के स्कंदमाता स्वरूप की उपासना –
नवरात्रि के पांचवें दिन स्कंदमाता की आराधना होती है। माँ का यह रूप संतान की सुरक्षा और पालन-पोषण का प्रतीक है। लेकिन समाज में अनगिनत माताएँ अपनी बेटियों की रक्षा नहीं कर पातीं। कन्या भ्रूण हत्या और बालिकाओं की उपेक्षा की घटनाएँ इस पवित्र पूजा का उपहास करती हैं।
कई बार गरीबी, अज्ञानता या पितृसत्तात्मक दबाव के कारण बच्चियों को जन्म के तुरंत बाद ही कूड़े-कचरे में फेंक दिया जाता है। ऐसे मामलों में समाज चुप रहता है, मानो यह कोई बड़ी बात ही न हो। नवरात्रि में ‘माँ’ की आराधना करने वाले लोग, माँ और बेटी की पीड़ा के प्रति संवेदनहीन हो जाते हैं।
कात्यायनी स्वरूप की पूजा –
कात्यायनी स्वरूप को साहस और न्याय का प्रतीक माना जाता है। नवरात्रि के छठे दिन उनकी उपासना की जाती है। लेकिन वास्तविक जीवन में जब कोई लड़की अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती है, तो उसे चुप कराया जाता है। अनेक मामलों में न्याय की तलाश करने वाली स्त्रियों को ताने और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है।
ऐसे समाज में बेटियाँ खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। कई बार परित्यक्त बच्चियाँ शिशु गृहों या अनाथालयों में पलती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें अपनाने का साहस नहीं कर पाते। विडम्बना यह है कि वही लोग देवी कात्यायनी से साहस की याचना करते हैं, लेकिन बेटियों के जन्म को साहसपूर्वक स्वीकार नहीं करते।
कालरात्रि देवी का स्वरूप –
सातवें दिन कालरात्रि की पूजा होती है। यह स्वरूप अंधकार और भय का विनाश करने वाला है। भक्त मानते हैं कि उनकी आराधना से सभी संकट दूर हो जाते हैं। परन्तु समाज में स्त्रियाँ स्वयं ही संकटों का प्रतीक बना दी जाती हैं। घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, यौन उत्पीड़न—ये सभी स्त्री के जीवन का हिस्सा बना दिए जाते हैं। और जब बेटी को जन्म से पहले या तुरंत बाद कूड़े में फेंक दिया जाता है, तब यह समाज अपनी ही ‘कालरात्रि’ का निर्माण करता है। देवी के रौद्र रूप को पूजने वाले लोग जीवित स्त्रियों के प्रति सबसे अधिक क्रूर हो जाते हैं।
महागौरी –
आठवें दिन महागौरी की पूजा होती है, जिन्हें शुद्धता और सौम्यता का प्रतीक माना जाता है। भक्त देवी की आराधना करते हुए यह कामना करते हैं कि उनके जीवन में निर्मलता और स्नेह बना रहे।
लेकिन जब बच्चियों को जन्म के साथ ही अस्वीकृति मिलती है, जब वे कचरे के ढेर पर जीवन की पहली साँस लेती हैं, तो इस ‘निर्मलता’ की परिभाषा क्या रह जाती है? एक ओर लोग महागौरी की सफेद वस्त्रों में आरती उतारते हैं, दूसरी ओर जीवित गौरी को गंदगी में छोड़ने में हिचकते नहीं। पूजा और वास्तविकता का यह विरोधाभास मनुष्य की संवेदनहीनता का सबसे कठोर उदाहरण है।
सिद्धिदात्री –
नवरात्रि के अंतिम दिन सिद्धिदात्री की उपासना होती है। माना जाता है कि वे भक्तों को सभी सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। परंतु जिन कन्याओं को जीने का अधिकार ही नहीं मिलता, उनके लिए कोई सिद्धि शेष नहीं रह जाती। यह समाज बेटियों की आकांक्षाओं को पहले ही कुचल देता है। समाचारों में जब यह खबर आती है कि नवजात बच्ची को थैली में बंद करके कूड़े में फेंक दिया गया, तो यह केवल एक अपराध नहीं बल्कि पूरी सभ्यता पर कलंक है। ऐसी घटनाएँ हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि देवी की पूजा महज औपचारिकता है या फिर आत्मप्रवंचना।
निष्कर्ष –
पूरे नवरात्रि उत्सव का सार यही है कि स्त्री को देवी का रूप मानकर पूजा जाए। किंतु जब यही समाज अपनी बेटियों को गर्भ में मार देता है या जन्म के बाद कूड़े में छोड़ देता है, तो नवरात्रि का संदेश खोखला हो जाता है। पूजा और व्यवहार के इस विरोधाभास ने स्त्रियों की स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया है। कन्या पूजन के थाली में सजे पकवान, उसी समय कहीं कूड़े में तड़पती बच्ची की चीख को दबा नहीं सकते।
यही वह कठोर सच्चाई है, जो दिखावे की भक्ति पर भारी पड़ती है।
पूजा तभी सार्थक है जब देवी के आदर्श व्यवहार में बदलें। केवल थाली और दीपक से शक्ति की आराधना अधूरी है। कन्या भ्रूण हत्या, नवजात बेटियों की दुर्दशा और जीवित स्त्रियों के प्रति तिरस्कार के विरुद्ध सामाजिक जागरूकता और कार्रवाई आवश्यक है। तभी नवरात्रि का वास्तविक संदेश, स्त्री-शक्ति का सम्मान और सुरक्षा, पूर्ण हो सकता है

