युग – युग के प्रतिनिधि श्री कृष्ण –
आज कृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व पर हम योगीश्वर श्री कृष्ण भगवान को सादर प्रणाम करते हैं।
श्री कृष्ण किसी एक युग विशेष के प्रतिनिधि न होकर युग युग के प्रतिनिधि हैं। शायद यही कारण रहा कि इतने युग बीत गए, फिर भी हर युग के कवियों, लेखकों, विचारकों, महात्माओं, संतों, दार्शनिकों…. सभी ने श्री कृष्ण के व्यक्तित्व को अपना आदर्श मानकर उनके बारे में बहुत कुछ लिखा।
कवि कुल कमल दिवाकर, हिंदी काव्य गगन के सूर्य, कृष्ण भक्त कवि, सूरदास जी को आज के दिन न याद किया जाए तो बहुत कुछ अधूरा ही रह जाएगा। सूरदास ने कृष्ण के बाल रूप वर्णन में जैसे अपने अलौकिक व्यक्तित्व का ही परिचय दे दिया।
सूरदास द्वारा श्रीकृष्ण जी का बाल रूप वर्णन –
शायद यही कारण रहा कि उनके नेत्रहीन होने की बात पर विश्वास कर पाना असंभव हो जाता है। लेकिन सच तो यही है कि सूरदास नेत्रहीन थे और उन्होंने कृष्ण जी की छवि ऐसी अपने दिल मे बसा ली थी कि कृष्ण जी का बाल रूप उनके शब्दों से ऐसे प्रस्फुटित हुआ है कि हमें कान्हा के दर्शन हो ही जाते हैं। फिर चाहे वह कान्हा का माखन चोरी करना हो या माता यशोदा से अपने बालों के बढ़ने की बात पूछना हो और माता का प्यार से बेटे को यह कहना कि –
“कजरी को पय पियो लला तोरी बाढ़े चोटी”
डॉ.मृदुल कीर्ति जी द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता का ब्रजभाषा में काव्यानुवाद –
आज के दिन मैं परम विदुषी डॉ मृदुल कीर्ति जी के द्वारा किये गए ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के ब्रजभाषा अनुवाद का ज़िक्र अवश्य करूंगी। गृहस्थ रहते हुए भी आपने अठारह महाग्रंथों का काव्यानुवाद किया, जो एक असंभव सा कार्य था, जिसे आपने करके दिखाया।
आपने जिस तरह संस्कृत के आर्ष ग्रंथों का हिंदी ही नही ब्रजभाषा में भी काव्यानुवाद प्रस्तुत किया, उससे निसंदेह यह समझ आता है कि आपने आधुनिक साहित्य को उसकी जड़ों से जोड़ा।
मृदुल कीर्ति जी से 2-3 दिन पहले बात करते हुए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की चर्चा हुई और उन्होंने मुझसे कहा कि
“भावना कुछ भी अच्छा करना चाहती हो तो गीता को प्रसाद स्वरूप दुनिया को बांटो।”
उनकी बात को मैं अपने लिए आशीर्वाद समझती हूं क्योंकि उनका एक-एक शब्द मेरे लिए बहुत मायने रखता है….. और मुझे उनका ये प्रसाद मिला है, उनके गीता के ब्रजभाषा अनुवाद में। आपने ब्रज भाषा मे गीता का काव्यानुवाद किया, जबकि इस भाषा मे आपने कोई औपचारिक शिक्षा नही ली। आपने बताया कि
“मैं तो कभी ब्रज के आसपास भी नही गयी।”
आपने कान्हा की भाषा मे ही श्रीमद्भगवद्गीता का काव्यानुवाद कर दिया।
आपके शब्दों को महसूस करिए, जिनसे उनकी उस परम सत्ता, उस कृष्ण के प्रति आस्था, श्रद्धा स्वयं ही व्यक्त हो रही है –
ॐ
समर्पण
वासुदेवमयी सृष्टि की
उस सत्ता को
जिसने जीवन की
चिलचिलाती धूप में
छाँव बन कर ठाँव दी।
–मृदुल कीर्ति
विनय
श्याम! नै वेणु बजाई घनी,
शंख ‘पाञ्चजन्य’ गुंजाय करे।
अब आनि बसौ मोरी लेखनी में
ब्रज भाषा में गीता सुनाऔ हरे।
संस्कृत के श्लोकों से ब्रज की मीठी सी भाषा में आकर अपनी बात कहने के लिए मृदुल जी उसी श्याम को ही पुकारती हैं और उन्ही से आवाहन करती है कि “मेरी लेखनी में आकर बस जाओ।”
आज कान्हा के जन्मदिन के अवसर पर श्रीमद्भगवद्गीता के कुछ संस्कृत श्लोकों का ब्रज भाषा में डॉ. मृदुल कीर्ति जी द्वारा किया गया काव्यानुवाद आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूं, इन्हें पढ़ें –
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
ब्रजभाषा में यही श्लोक –
“जब धर्म धरा पे नसावत है,
अधर्महूँ पाँव पसावत है,
तब धरनी-धर तन धारे धरा पर ,
धर्म को आनि बचावत हैं।”
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥४-८॥
ब्रजभाषा में –
“फिर साधुन के उद्धारण कौ,
और दुष्ट दलन संहारण कौ,
युग मांहीं धरम प्रसारण कौ.
प्रगटत हूँ सृष्टि संवारण कौ।”
