अपराध कोई भी हो, उसका वह पहलू तो हमें नज़र आता है जो सामने दिखता है, लेकिन एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी होता है, जो अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकतर अपराध मनोविकृत्तियों के कारण ही होते हैं। अब ऐसे में पुलिस या न्याय व्यवस्था क्या कर सकती है, या उसने क्या नही करके गलती की, यह प्रश्न खड़ा हो जाता है और इस प्रश्न के उत्तर को प्राप्त करने में हम इतना भटक जाते हैं कि परिस्थितियां बिल्कुल बिगड़ जाती हैं।
डॉ. सत्या सिंह जी के विचार –
इस विषय पर मैंने डॉ. सत्या सिंह जी से जब बात की तो उनकी बातों से और जिन बिंदुंओ पर उन्होंने प्रकाश डाला, उन्हें सुनकर मैं बिल्कुल अवाक रह गई। क्योंकि उन्होंने एक पुलिस अधिकारी के रूप में तो इतने वर्षों तक देश की सेवा की ही, उसके साथ ही आप मनोविज्ञान की विद्यार्थी भी रही हैं और अब उन्होंने पूरी तरह स्वयं को लेखन में डुबो दिया है। लेखन भी ऐसे ऐसे विषयों पर, जिनपर हम कभी ध्यान नही दे पाते लेकिन वह विषय ऐसे हैं जो हम सभी का पूरा ध्यान और एक व्यापक चर्चा चाहते हैं।
डॉ. सत्या सिंह जी का सम्पूर्ण लेखन ही मुझे लगता है कि ऐसे विषयों पर है, जो आज एक ज्वलंत समस्या बनकर खड़े हैं, जैसे बुजुर्गों का उनकी औलाद द्वारा तिरस्कार, कोटा में बच्चों का समाप्त होता जीवन- उसके भी मनोवैज्ञानिक कारण……आदि आदि।
भावनाओं का आदान-प्रदान –
पर फिलहाल जैसा कि मैंने “भावनात्मक संवाद” की पहली ही पोस्ट में आपके साथ बात करते हुए कहा था कि यहां हम और आप भावनाओं का आदान-प्रदान करेंगे, हम सबके बीच एक भावनात्मक संवाद होगा।
जब सत्या सिंह जी से मैंने बात की और उन्होंने बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे पर कुछ आंख खोलने वाली जानकारियां मुझे दीं, तो मुझे लगा कि यहां इस पटल पर उन्हें मैं आप सबके साथ अवश्य साझा करूं, और आज मैं इस मुद्दे का पहला भाग जो डॉ. सत्या सिंह जी द्वारा ही लिखा गया है, आप लोगों के लिए प्रकाशित कर रही हूं। यह एक ऐसा गंभीर लेकिन संवेदनशील विषय है कि इस पर सत्या जी से ज़्यादा मुझे कोई भी नज़र नहीं आया, जो इतने महत्वपूर्ण बिंदु उठा सके।
मेरा आप सबसे निवेदन है कि कृपया इस लेख को ध्यान से पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी अवश्य दें। आगे आने वाली पीढियां हमें कभी माफ न शायद कर सकें क्योंकि हमने इस घोर पाप और घृणित कृत्य के पीछे के कारण को कभी समझने की शायद चेष्टा ही नही की। आइए इस ओर एक कदम बढ़ाएं ताकि फिर कोई भी बेटी इस यातना का शिकार न हो।
डॉ. सत्या सिंह जी की कलम से –
(लेखिका पूर्व पुलिस अधिकारी और मनोवैज्ञानिक हैं) –
बलात्कार जैसे अपराध में हमारी, पुलिस, न्यायपालिका और समाज की भूमिका क्या हो ?
जब से समाज बना होगा संभवत: अपराध भी तभी से होना शुरू हुआ होगा। अपराध और मानव-विकास दोनों ही एक दूसरे से सम्बंधित हैं। हमारे धर्मग्रंथ और समाज के बुजुर्ग जिसे समाजिक और धार्मिक परिवेश में पाप कहते हैं, वास्तव में वह अपराध ही तो है ।
पाप का जन्म मस्तिष्क में –
अगर सोचा जाए तो पाप या अपराध तो उसी समय से होना शुरू हो गया जब आदम और हव्वा ने, ईश्वर की चेतावनी के बाद भी वर्जित फल खा लिया था और उन्हें स्वयं के अस्तित्व के बारे में और महिला पुरुष के संबंधों में सम्मोहन के बारे में आभास हो गया था ! और वे इसी पाप या अपराध के लिये स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिए गए थे ! और तो और इसकी सजा के तौर पर उन्हें स्वर्ग से निकाल कर इस दुनिया में भेजा गया था।
वैसे तो यह कहानी सभी धर्मो की सभी मूल किताबों में लिखी हुई है और उसमें अन्तर सिर्फ़ उस वर्जित फल के स्वरूप का है, क्योंकि इस फल को सेब के साथ ही कहीं गेंहू भी कहा गया है पर इससे इस बात का बोध होता है कि गुनाह तो आदम की फ़ितरत में शामिल रहा है। इस कहानी से यह बात साफ़ हो जाती है कि मनुष्य द्वारा ईश्वरीय आदेश का उल्लंघन एक पाप या अपराध को जन्म देता है और शायद यह भी सच लगता है कि पाप हो या अपराध वह मस्तिष्क में ही जन्मता है।

अपराध नियंत्रण की अपेक्षा राज्य विस्तार पर बल –
हमारा समाज जब जब सभ्यता की राह पर चलकर व्यवस्थित बना तो राज्य, साम्राज्य, गणतंत्र, और तमाम विकास की लंबी यात्रा कर के हम आधुनिक काल मे पहुंच गये पर धर्म तब भी अक्सर लगभग सभी अपराधों को पाप की श्रेणी में रख कर ही देखता था। अपराध नियंत्रण का यह एक अलग और तत्कालीन तरीका था। जैसे समाज का विकास हुआ वैसे ही राज व्यवस्था, प्रशासनिक तंत्र का भी विकास हुआ और यह प्रक्रिया तभी से निरंतर चल रही है।
भारत मे प्राचीन और मध्ययुगीन काल में कुछ कानून जरूर थे, जिनमें दंड का अधिकार अधिकतर समाज को था परन्तु राजा की रुचि व्यक्तिगत अपराधों से अधिक राज्य के विरुद्ध अपराधों में रहती थी और समाज स्वयं अपने अंदर के अपराधियों को जाति बहिष्कृत, धर्म से वंचित और समाज से निष्कासित कर के यथा संभव नियंत्रित करता रहता था। राज्य और राजा की अपराध नियंत्रण और दंड विधान में कोई विशेष रुचि नहीं रहती थी बल्कि उसकी रुचि राज्य विस्तार और राजतंत्र सुरक्षित रहे इसमें ही ज्यादा रहती थी ।
भारत में व्यवस्थित रूप से आपराधिक न्याय प्रणाली का प्रारंभ 1861 में जब “आधुनिक पुलिस व्यवस्था और दंड विधान”, ” दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम” बने तब हुआ। तब भी इस संहिता में, राज्य के प्रति अपराध पहले रखे गए और व्यक्ति से जुड़े अपराध बाद में आये। इन्ही अपराधों में बलात्कार से जुड़ा अपराध धारा 376 आइपीसी का बना जिसमें बाद में संशोधन कर के अन्य उप धारायें जोड़ी गयी।
बलात्कार एक जघन्य अपराध –
बलात्कार अपनी गम्भीरता में हत्या से भी जघन्य अपराध है। यह पूरे समाज, स्त्री जाति और हम जबको अंदर से हिला देता है। हत्या का कारण रंजिश होती है पर बलात्कार का कारण रंजिश नहीं होती है। बलात्कार का कारण, कुछ और होता है। इसका कारण महिलाओं के प्रति हमारी सोच और समझ होती है। उन्हें देखने का नजरिया होता है। यौन कुंठा होती है। बलात्कार एक जघन्य अपराध है पर बलात्कार का अपराध जिस मस्तिष्क में जन्म लेता है वह घृणित मनोवृत्ति है।
मान लीजिए अपराध से तो पुलिस निपटेगी ही, पर इस मनोवृति से तो हमे आप को और हमारे समाज को ही निपटना होगा। क्योंकि अगर हम ईमानदारी से सोचेंगे तो पायेंगे कि कैसे सिर्फ़ पुलिस जाकर जान पहचान, पास पड़ोस से, ऐसे अपराधियों के बारे में पता कर सकेगी और जान सकेगी कि अपराध की पृष्ठभूमि कब बन रही है ? कब एक मासूम लड़की एक ग़लत लड़के पर भरोसा कर बैठी है ? या एक बेटी अपने प्रेमी के साथ भाग जाएगी या एक शराबी बाप अपनी ही बेटी को अपनी हवस का शिकार बना लेगा ? एक बेटा अपने बाप को कब एक भाई अपने भाई की जान ले लेगा ? पर जब अपराध हो जाता है तो, स्वाभाविक है पुलिस पर उस अपराध को न रोक पाने का दायित्व तो आता ही है जिसमे रत्ती भर भी पुलिस की कोई भूमिका नही होती।
पुरुषवादी मानसिकता –
यहां समाज से अधिक घर, परिवार,और दोस्त मित्र पर नजर रखने की जिम्मेदारी भी घर, परिवार, और दोस्त मित्र की ही है। अमूमन घरों में अगर ऐसा कुछ होता रहता भी है तो, उसकी खबर माँ-पिता भाई और घर मे ही बहुत कम सदस्यों को हो पाती है, पुलिस की तो बात ही छोड़ दीजिए।

हमारे समाज में पुरुषवादी मानसिकता बचपन से ही है कि “मर्द को दर्द नहीं होता !” “बेटा तो घर का चिराग होता है”और “बेटियाँ तो पराई होती हैं उन्हें दूसरे घर जाना है !” साथ ही तुम मर्द बनो लड़कियों की तरह व्यवहार मत करो, लड़के कभी रोते नहीं कह कह कर लड़कों को आक्रामक और प्रभावशाली व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है हमें इस सोच से बाहर निकलने की ज़रूरत है।
क्या पुरुष होने से संवेदनहीन हो जाते हैं –
सोचिये क्या मात्र पुरुष हो जाने से किसी व्यक्ति की अश्रु ग्रंथियाँ सूख जाती हैं ! उसके अन्दर की संवेदना ख़त्म हो जाती हैं ? हमें आज यह सोचने और समझने की बहुत जरूरत है कि अगर कोई लड़का रोयेगा नहीं उसकी आँखों में आँसू नहीं आयेंगे तो वह किसी दर्द या किसी संवेदना को महसूस कैसे करेगा ? शायद हमारी यही सोच उसे इतना हिंसक बना देती है कि बलात्कार जैसा घिनौना कृत्य करते हुए पीड़िता कि चीखें उसका दर्द से चिल्लाना भी उसकी आत्मा तक नहीं पहुँचता है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) भी इस बारे में टिप्पणी करता है कि किस तरह ऐसी ज़हरीली मर्दानगी की भावनाएं युवाओं के ज़हन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताक़तवर और नियंत्रण रखने वाला होता है और उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दानगी है, जो उन्हें छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार तक एक ही कुंठा अभिप्रेरित करती है, जिसके फलस्वरूप उसके अपराधी मन को बस अवसर की तलाश रहती है।
सुरक्षा टिप देना –
हमारे घर और समाज में यह बात बहुत जरूरी है कि लड़कियों को सुरक्षित जीने के लिये बेहतर सुरक्षा टिप दिए जांयें और उन्हें घर में बराबरी का मौका भी दिया जाय।उन्हें शिक्षित करने के साथ ही परिवार में अलग थलग डरा दबा कर न रखा जाये बल्कि उन्हें पूरे पुरूष जाति से बिना डरे उन जानवर रूपी पुरूष की आँखे, जुबान और उनके देह की भाषा पढ़ना बताया और सिखाया जाये जिससे उन्हें भी यह एहसास हो और वह समाज में आवाज़ उठा सके कि स्त्री एक शरीर, माल या मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि उसके अन्दर भी भावनाएँ और इच्छायें हैं।
फिल्मों और मीडिया का प्रभाव –
कई मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे दिमाग की बनावट इस तरह की है कि बार-बार पढ़े, देखे, सुने या किए जाने वाले कार्यों और बातों का असर हमारी चिंतनधारा पर गहराई तक होता है और इसी से हमारे निर्णयों और कार्यों का स्वरूप भी तय होता है ! इसलिए पोर्न या सिनेमा और अन्य डिजिटल माध्यमों से परोसे जाने वाले सॉफ्ट पोर्न का असर हमारे दिमाग पर होता ही है और यह हमें यौन-हिंसा के लिए मानसिक रूप से तैयार और प्रेरित करता है।
अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में पंजाबी पॉप गानों से लेकर फिल्मी ‘आइटम सॉन्ग’ और भोजपुरी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करने वाले गानों की वकालत करने से पहले हमें थोड़ा सोचना होगा। आज कल जिस तरह से महिलाओं के अंतर्वस्त्रों की नुमाइश फिल्मों,सीरियलों, दुकानों और बड़े बड़े मॉल्स में होती है उसकी सार्थकता का कोई पैमाना ही नहीं रह गया है।
स्त्री देह का उपयोग मेनिक्विन ( डमी ) के रूप में लगा कर प्रोडक्ट बेचने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है ताकि लोगों को आकर्षित किया जा सके। वैसे यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि जिन चीजों को हम बार-बार देखते हैं या जिन बातों के बारे में हम बार-बार सोचते हैं, वे हमारे मन, वचन और कर्म पर कुछ न कुछ प्रभाव तो अवश्य ही छोड़ जाती हैं……..
