विडंबना का यथार्थ : नारी अनादर और देवी पूजन

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डॉ. सत्या सिंह

डॉ. सत्या सिंह
पूर्व पुलिस अधिकारी, अधिवक्ता, काउंसलर।

2011 में भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति माननीया प्रतिभा पाटिल जी के हाथों सम्मानित हो चुकी हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की तरफ से 2017 में उन्हें ‘देवी अवार्ड’ से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने सम्मानित किया।

आपको सम्मान स्वरूप मिले मेडल, प्रशस्ति पत्र एवं पुरस्कारों से एक कमरा भरा हुआ है।

आप ताइक्वांडो चैंपियन भी हैं।

नवरात्रि विशेष –

भारतीय संस्कृति और सभ्यता का मूल तत्व नारी-सम्मान रहा है। यहाँ नारी को शक्ति, ममता, करुणा और सृजन का प्रतीक माना गया है। ‘‘मातृदेवो भव’’ और ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ जैसे सूत्र भारतीय मानस में गहरे पैठे हुए हैं। नवरात्रि का पर्व इस परम्परा का चरम रूप है, जब नौ दिन तक देवी दुर्गा के नौ रूपों की उपासना की जाती है, कन्या-भोज कराया जाता है और स्त्रियों को देवी का स्वरूप मानकर आदर दिया जाता है।

सनातन संस्कृति में नारी –

हमारी संस्कृति को प्रायः ‘नारी-सम्मान’ की संस्कृति कहा जाता है। यहाँ स्त्रियों को ‘शक्ति’, ‘ममता’, ‘सृजन’ और ‘धैर्य’ का प्रतीक माना गया। वेदों से लेकर उपनिषदों और पुराणों तक में नारी को देवी स्वरूप में पूजने की परम्परा विद्यमान है। नवरात्रि में हम देवी दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हैं, कन्या पूजन करते हैं और नारी को ‘शक्ति’ कहकर अलंकृत करते हैं। किन्तु दूसरी ओर यह भी यथार्थ है कि इसी समाज में बच्चियों के साथ बलात्कार, नारी उत्पीड़न, दहेज हत्या, बाल विवाह और भ्रूण हत्या जैसी घटनाएँ घटित होती हैं।

हमारी संस्कृति में विरोधाभास क्यों –

यह विरोधाभास केवल धार्मिक आडम्बर और सामाजिक कुरीतियों की ओर संकेत नहीं करता, बल्कि यह हमारी सामूहिक चेतना के गहरे अंतर्विरोध को भी उजागर करता है। प्रश्न उठता है कि जब हम देवी को पूजते हैं, तो जीवित स्त्रियों का सम्मान क्यों नहीं कर पाते?

भारतीय समाज में नारी का स्थान –

भारतीय इतिहास का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि नारी का स्थान समय के साथ बदलता रहा। प्राचीन भारत में नारी को उच्च स्थान प्राप्त था। गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, लोपामुद्रा जैसी विदुषियाँ ऋषियों के समकक्ष ज्ञान की साधना करती थीं। मनु ने नारी को ‘गृह की लक्ष्मी’ कहा, परन्तु इतिहास के साथ पितृसत्तात्मक संरचना गहराती गई और स्त्री का दायरा घर-परिवार तक सीमित कर दिया गया। स्वतंत्रता और सम्मान का स्थान नियंत्रण और शोषण में बदल गया।

वैदिक काल –

गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा जैसी विदुषियाँ ऋषियों के साथ ज्ञान-चर्चा करती थीं। यज्ञ और दर्शन में उनकी समान भागीदारी थी।

उत्तरवैदिक और मध्यकाल –

धीरे-धीरे पितृसत्ता मजबूत हुई। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं ने नारी की स्वतंत्रता सीमित कर दी।

आधुनिक काल –

19वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा-विवाह का समर्थन किया। सावित्रीबाई फुले ने स्त्री-शिक्षा का बिगुल बजाया। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों को अग्रिम पंक्ति में लाकर उनके अधिकारों का मार्ग प्रशस्त किया।

वर्तमान में नारी की स्थिति –

आज भारत की नारी राजनीति, विज्ञान, साहित्य और खेल के क्षेत्र में उपलब्धियाँ अर्जित कर रही है, परन्तु विडम्बना यह है कि सामाजिक सोच अब भी पूरी तरह नहीं बदली। आधुनिक भारत में शिक्षा और संविधान ने नारी को बराबरी का दर्जा दिया, लेकिन सामाजिक व्यवहार में यह बराबरी आज भी आंशिक है। कार्यस्थलों पर शोषण, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा, बालिकाओं के साथ बलात्कार—ये सभी घटनाएँ बताती हैं कि हम अभी भी मानसिक रूप से स्त्री को ‘देवी’ और ‘मानव’ के रूप में एक साथ स्वीकार नहीं कर पाए हैं।

देवी-पूजन और जीवित नारी का अनादर –

नवरात्रि में घर-घर में दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है। मंदिरों में विशेष आयोजन होते हैं और बालिकाओं को ‘‘कन्याओं’’ के रूप में पूजकर उनके चरण धोए जाते हैं। समाज कन्या को देवी मानकर प्रसाद अर्पित करता है। नवरात्रि के दौरान मंदिरों में देवी दुर्गा की पूजा, कन्या भोज और शक्ति-आराधना होती है। किंतु यही समाज ‘‘निर्भया’’ (2012), कठुआ (2018), हाथरस (2020) जैसी घटनाओं से हिल उठता है।
प्रश्न यह है कि क्या देवी केवल मूर्तियों तक सीमित है? यदि समाज स्त्री को देवी मानता है तो जीवित स्त्रियों को वही गरिमा क्यों नहीं मिलती?

किन्तु यह सम्मान मात्र नौ दिनों तक ही क्यों सीमित है? वर्ष के शेष दिनों में वही कन्या जब विद्यालय जाती है, तो छेड़छाड़ और असुरक्षा का शिकार होती है। वही स्त्री जब कार्यस्थल जाती है तो शोषण झेलती है। यही विरोधाभास हमारे धार्मिक जीवन और सामाजिक व्यवहार के बीच गहरी खाई को दर्शाता है।

देवी की मूर्ति पूजनीय है पर जीवित स्त्री क्यों नहीं? यह प्रश्न आज हमारे समाज के लिए आत्ममंथन का विषय है।

बालिकाओं पर अपराध – कठोर यथार्थ –

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 16 मिनट पर एक महिला बलात्कार का शिकार होती है। 2023 की रिपोर्ट बताती है कि नाबालिग बालिकाओं के साथ अपराधों की संख्या लगातार बढ़ रही है। POCSO अधिनियम (2012) के बाद भी सुधार संतोषजनक नहीं है।
2012 में ‘‘निर्भया कांड’’ ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया।
2018 का ‘‘कठुआ कांड’’ मासूम बच्ची की अस्मिता पर अमानवीय आघात था।
2020 का ‘‘हाथरस प्रकरण’’, और अभी कुछ माह पहले जो सोनम का कांड हुआ, उसके पीछे भी कही न कही विकृत मानसिकता का परिणाम ही परिलक्षित होता है, जिसके कारण क्रिया की प्रतिक्रिया जो रही है और लड़कियां भी बहुत गलत कदम उठा रही हैं, यह सब घटनाएं सामाजिक न्याय और व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न छोड़ रही हैं।

ये घटनाएँ बताती हैं कि आस्था और आडम्बर के बीच असली नारी निरंतर असुरक्षित है।

पितृसत्ता और मानसिकता –

पितृसत्तात्मक संरचना नारी को स्वतंत्र व्यक्तित्व की बजाय पुरुष की अधीनता में देखती है। यह सोच परिवार, धर्म, परम्परा और संस्कृति सभी में व्याप्त है। भारतीय समाज में पुरुष-प्रधान सोच इतनी गहरी है कि स्त्री को स्वतंत्र व्यक्तित्व की बजाय परिवार और पुरुष की ‘संपत्ति’ के रूप में देखा जाता है। धर्म और परम्पराएँ अक्सर इस पितृसत्तात्मक दृष्टि को वैध ठहराती हैं।

परिणामतः देवी की मूर्तियों को पूजना सहज लगता है, धार्मिक आयोजनों में देवी की पूजा तो होती है, लेकिन स्त्रियों की स्वतंत्रता से समाज असहज हो उठता है।
परिवार में बेटा आज भी ‘वंश चलाने वाला’ और बेटी ‘पराया धन’ कही जाती है।
विवाह में दहेज की अपेक्षा बेटियों को बोझ बना देती है।
यह मानसिकता ही असली विडम्बना है, जिसे बदलने की आवश्यकता है।

साहित्य और दर्शन में स्त्री –

भारतीय साहित्य ने स्त्री की गरिमा को बार-बार रेखांकित किया।
महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में स्त्री को बंधनमुक्त करने का आह्वान किया।
अमृता प्रीतम की ‘पिंजर’ स्त्री अस्मिता की गहरी वेदना है।
मन्नू भंडारी और कृष्णा सोबती ने स्त्री जीवन की जटिलताओं को यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया।
दर्शन की दृष्टि से भी ‘‘नारी ही शक्ति है’’। उपनिषदों ने कहा कि ज्ञान और साधना में नारी की भूमिका पुरुष से भिन्न नहीं। फिर समाज क्यों इस सत्य को व्यवहार में नहीं उतार पाता?

शिक्षा, कानून और समाज में नारी की स्थिति –

भारतीय संविधान ने नारी को समान अधिकार दिया है। अनुच्छेद 14 और 15 में समानता का अधिकार, अनुच्छेद 39 में समान अवसर की गारंटी दी गई है।

कानून –

घरेलू हिंसा अधिनियम (2005), कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम (2013), POCSO एक्ट।

शिक्षा –

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ योजना ने बालिकाओं की शिक्षा पर जोर दिया।

समाज –

यदि परिवार से ही बच्चों को लैंगिक संवेदनशीलता सिखाई जाए तो वास्तविक बदलाव संभव है।

विडम्बना का दार्शनिक विश्लेषण –

भारतीय दर्शन यह मानता है कि देवी और नारी में कोई भेद नहीं। फिर भी व्यवहार में अंतर क्यों? यह भेद हमारे भीतर के आध्यात्मिक आडम्बर और सामाजिक विडम्बना का परिणाम है। नवरात्रि में देवी की मूर्ति को पूजना आसान है, क्योंकि वह प्रतिरोध नहीं करती; पर जीवित स्त्री जब अपने अधिकार मांगती है तो पुरुष-प्रधान समाज उसे चुनौती मानता है।

भारतीय दर्शन में नारी –

भारतीय दर्शन प्राचीन काल से यह उद्घोष करता आया है कि देवी और नारी में कोई भेद नहीं है। उपनिषदों में ‘शक्ति’ को ब्रह्म का सक्रिय रूप माना गया है, और पुराणों में नारी को ‘अर्धांगिनी’ एवं ‘मातृशक्ति’ कहा गया है। फिर भी जब हम समाज के व्यवहार को देखते हैं तो यहाँ एक गहरी विडम्बना दिखाई देती है…..पूजा के समय स्त्री देवत्व का रूप है, किंतु व्यवहार में उसे अक्सर उपेक्षा, हिंसा और अन्याय सहना पड़ता है।

इस विरोधाभास का कारण हमारे भीतर पनपा आध्यात्मिक आडम्बर है। धर्मग्रंथों में स्त्री को ‘शक्ति’ और ‘माता’ कहा गया, किंतु वास्तविक जीवन में उसे स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में स्वीकार करने से बचा गया। नवरात्रि में देवी की मूर्ति की पूजा करना इसलिए सरल है क्योंकि वह मूर्ति प्रतिरोध नहीं करती, कोई अधिकार नहीं मांगती। किंतु जब जीवित स्त्री अपने सम्मान, समानता और स्वतंत्रता की बात करती है, तो पुरुष-प्रधान मानसिकता उसे चुनौती के रूप में देखती है।
दार्शनिक दृष्टि से यह विडम्बना हमारे भीतर की द्वंद्वात्मकता को उजागर करती है। हम ‘आदर्श’ और ‘व्यवहार’ के बीच गहरी खाई बनाए हुए हैं। आदर्श रूप में स्त्री को देवी कहकर पूजते हैं, जबकि व्यवहार में उसकी स्वायत्तता को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि देवी-पूजन और स्त्री-अनादर साथ-साथ चलते हैं।

निष्कर्ष –

अतः समाधान केवल बाहरी अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि अंतःकरण के परिवर्तन में है। जब तक हम स्त्री को देवत्व का प्रतीक मानने के साथ-साथ एक जीवित, संवेदनशील और अधिकार संपन्न मनुष्य के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक यह विडम्बना समाप्त नहीं होगी। दर्शन हमें यह सिखाता है कि सत्य और आचरण में सामंजस्य होना ही वास्तविक धर्म है। इसलिए देवी और नारी में भेद मिटाना ही हमारे आध्यात्मिक जीवन की सच्ची कसौटी है।यही कारण है कि धार्मिकता केवल कर्मकाण्ड तक सीमित रह गई है, व्यवहार में उसका प्रभाव नहीं।

समाधान और सकारात्मक पहल –

स्त्रियों के प्रति हो रहे अन्याय, शोषण और हिंसा की समस्या से निपटने के लिए हमें केवल दोषारोपण तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि ठोस और सकारात्मक समाधान तलाशने चाहिए। सबसे पहले, धार्मिक पर्वों और परंपराओं को वास्तविक जीवन में नारी-सम्मान के व्यवहार से जोड़ना आवश्यक है।

जब हम नवरात्रि में देवी की पूजा करते हैं तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि हर नारी उसी शक्ति का मूर्त रूप है। इसलिए पर्वों को केवल औपचारिक अनुष्ठान न बनाकर, उन्हें स्त्रियों के सम्मान का जीवंत संदेश बनाने की दिशा में कार्य करना होगा।
दूसरा, न्याय व्यवस्था को और अधिक त्वरित व प्रभावी बनाना चाहिए। बलात्कार और स्त्री-उत्पीड़न के मामलों में शीघ्रतम सुनवाई और कठोर दंड समाज में भय और न्याय दोनों की स्थापना करेंगे। इसके साथ ही पीड़िताओं को संवेदनशील सहायता, कानूनी परामर्श और सामाजिक सहयोग भी उपलब्ध होना चाहिए।
तीसरा, स्त्रियों के आत्मविश्वास और सुरक्षा के लिए आत्मरक्षा प्रशिक्षण तथा आत्मनिर्भरता की शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य आत्मरक्षा पाठ्यक्रम तथा कौशल विकास केंद्र स्थापित करके स्त्रियों को हर परिस्थिति का सामना करने योग्य बनाया जा सकता है।

चौथा, परिवार और समाज की मानसिकता में बदलाव लाना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। बेटों और बेटियों दोनों को समान परवरिश देना, अवसरों में भेदभाव न करना और घर से ही सम्मान का संस्कार सिखाना स्थायी समाधान की दिशा में ठोस पहल होगी।

प्रचार-प्रसार भी आवश्यक –

अंततः, सामाजिक आंदोलनों और साहित्यिक विमर्श की भूमिका अनिवार्य है। नारी-स्वाभिमान और समानता को साहित्य, कला, नाटक, फिल्म और मीडिया के माध्यम से व्यापक स्तर पर प्रचारित करना चाहिए। जब विचारों का प्रवाह बदलता है, तब समाज का व्यवहार भी परिवर्तित होता है।
इस प्रकार, नारी-सम्मान और सुरक्षा का भविष्य केवल कानूनों से नहीं बल्कि धर्म, शिक्षा, परिवार, न्याय और साहित्य के समन्वित प्रयासों से ही सुरक्षित और उज्ज्वल हो सकता है।
नवरात्रि जैसे पर्वों को केवल अनुष्ठान न बनाकर नारी-सम्मान के उत्सव में बदलना।
परिवारों में बेटों और बेटियों के बीच भेदभाव समाप्त करना।
त्वरित न्याय व्यवस्था स्थापित करना, ताकि अपराधियों को शीघ्र दंड मिले।
स्त्रियों के लिए आत्मरक्षा और स्वावलम्बन को अनिवार्य शिक्षा का हिस्सा बनाना।
मीडिया और साहित्य में नारी को उपभोग की वस्तु के बजाय प्रेरणा और आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना।

नवरात्रि पर्व की सार्थकता –

नवरात्रि का पर्व तभी सार्थक है जब समाज की हर स्त्री सुरक्षित, सम्मानित और स्वतंत्र जीवन जी सके। देवी की पूजा केवल मंदिरों और मूर्तियों तक सीमित न रहे, बल्कि जीवित स्त्रियों के प्रति आदर और संवेदना में प्रकट हो।
यदि हम मूर्तियों में देवी देखें और जीवित स्त्रियों में उसे अपमानित करें तो यह न केवल सामाजिक अपराध है, बल्कि सांस्कृतिक आत्मघात भी है। आवश्यकता है कि धर्म, संस्कृति, शिक्षा और कानून सब मिलकर नारी को वह स्थान दें, जिसकी वह अधिकारी है।

संदर्भ ग्रंथ सूची –

1- मनुस्मृति – गीता प्रेस, गोरखपुर।
2 – वेद और उपनिषद – सम्पादक : स्वामी जगदीशानन्द।
3 – महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, राजकमल प्रकाशन।
4 – अमृता प्रीतम, पिंजर, हिन्दी साहित्य अकादमी।
5 – कृष्णा सोबती, मित्रो मरजानी, राजकमल प्रकाशन।
6 – राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) रिपोर्ट, 2023।
7 – यूनिसेफ़ रिपोर्ट, 2022।
8 – अरुणा रॉय, स्त्री और समाज, वाणी प्रकाशन।
9 – सुषमा शर्मा, भारतीय नारी विमर्श, लोकभारती प्रकाशन।

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