स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) के पावन अवसर पर कुछ ऐसा आप सबके लिए प्रस्तुत है कि आपका दिल भावुक हुए बिना नही रहेगा। क्योंकि हम बातें तो बड़े बड़े आदर्शों की करते हैं, लेकिन उन आदर्शों की कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं, यही आज हम सबसे पूछ रहे हैं वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक – विचारक कमल किशोर राजपूत “कमल”जी। उनका भारत माता से एक अद्भुत संवाद, एक वार्त्तालाप भी होता है और यह कहने में मुझे कोई संकोच नही कि इस तरह का संवाद कमल जी जैसा संवेदनशील व्यक्तित्व ही कर सकता है।
विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ इस शाश्वत, पावन, पुनीत और सनातन धरा को माँ का स्थान दिया गया और इसे माँ के स्वरूप पूजा गया, यह गूढ़ रहस्य नहीं अपितु अद्भुत पराकाष्ठा ही है। हमारे सभी ऋषियों, मुनियों, संतों, विभूतियों और अवतारों ने भारत भूमि को माँ का स्थान दिया। इसमें निसंदेह विशेष कारण रहा होगा क्योंकि ऐसी परम्परा या मान्यता किसी भी और देश में नहीं पाई जाती।
भारत भूमि : हमारी माँ –
जब हम भारत भूमि को माँ कहते हैं तो एक श्रद्धा की अनुभूति होती है और यह वंदनीय एवम् पूजनीय बन जाती है। जब भूमि को माँ कहते हैं तो स्वाभाविक ही है कि भूमि के अन्दर और बाहर जो भी है वह पेड़ हों, पक्षी हों, पशु हों, मनुष्य हों, पर्वत हों या जलाशय हों, यह सभी भावनाएँ स्वतः पूजनीय हो जाती हैं अर्थात सारी प्रकृति पूजा के योग्य बन जाती है।
वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा –
ऐसे विचारों से प्रेरित होकर ही वसुधैव कुटुम्बकम् की छवि उभरकर सामने आई होगी।ध्यानस्थ महान आत्माओं ने प्रकृति को इसीलिए माँ स्वरूपा माना ताकि हम सब एक दूसरे के परिपूरक बन जाएँगे और अगर ये हो जाए तो हम सभी एक हो जाएँगे गुलदस्ते 💐 के समान, ऐसा होने से पूरा विश्व एक परिवार बन ही जाएगा जहाँ सिर्फ शांति शांति शांति ही होगी।
भारत माँ से एक संवाद –
आजादी के इस पर्व पर अचानक मेरी वार्ता भारत माँ से हुई और यह कविता अवतरित हो गई, मैं तो निमित्त मात्र हूँ। आप सब भी इस वार्तालाप को महसूस करेंगे तो अच्छा लगेगा।
🇮🇳भारत माँ से मार्मिक संवाद🇮🇳
दृश्य प्रथम – एक बेटे की ज़ुबानी!
कल रात मेरे सपनों में भारत माता जब आई,
करुणा गाथा आतुरता से माँ ने मुझे सुनाई ….
रूह मेरी अंदर ही अंदर सदमे से घबराई,
गंगा-जमुना दिल की आँखों ने खूब बहाई,
माँ करूणा शिवशक्ति बन नैनों में ममताई,
वरद-हस्त माथे पर रख वह हौले से मुस्काई….।
दृश्य द्वितीय- प्रेम प्यार सहजता से माँ ये बोली!
क्यूँ फैली पावन धरती पे जहरीली सी ये होली?
क्यूँ मासूम से बच्चे डर से खेले आँखमिचोली?
क्यूँ साँसों में दावानल फैला हवा हुई विषैली?
क्यूँ उर्वर धरा सदियों की इतनी हुई जहरीली?
क्यूँ मासूम सब बच्चे खेले अपने खून की होली?
क्यूँ बिखरी साँसों के आँगन की सतरंगी रंगोली?
दृश्य तृतीय – अविरल अश्रुधारा माँ की ऑंखों में देख मैं कांप उठा!
किन शब्दों से मैं माँ की गाथा को लिख पाऊँगा?
सबकी प्रिय माता का विषाद कैसे कह पाऊँगा?
स्वयंभू सर्वव्यापी शक्ति का चित्रण कर पाऊँगा?
धवल हिमगिरी बेटी गंगा से कैसे मिल पाऊँगा?
कलुषित नदियों का कृन्दन कैसे सह पाऊँगा?
त्रासित मानव-गुंजन किन सुरों में सुना पाऊँगा?
दृश्य चतुर्थ- माँ ने सहज सरलता से इतना ही बोला –
मेरी कोख से जन्म सब लेते मुझमे ही सो जाते,
आँगन में मेरे खेल-खेल मासूमियत मुझे दिखाते,
बचपन के खेल-खिलोने ला मुझको भी दुलराते,
क्यों हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई में बटकर रह जाते?
माँ का आँगन बिसराकर कैसे वो इन्साँ कहलाते?
प्यारी-सी अपनी माँ को माँ कहने में भी शरमाते।
दृश्य पंचम- माँ ने ममत्व भावना से अमृत बूंदें कानों में फिर घोली! –
धर्म जुदा-जुदा लेकिन मंज़िल तो सबकी एक है,
राम-रहीम-ईसा-मसीह-नानक गुरु सब एक है,
रंग रूप अलग लेकिन खून लाल सबका एक है,
साँसों में हर पल इठलाती पवन सभी की एक है,
सागर-अवनि-सूरज-चाँद-सितारों की धुन एक है,
इंद्रधनुषी रंगों में हँसती गाती प्रेम कहानी एक है।
अंतिम दृश्य – एक संकल्प 🇮🇳🔱🇮🇳
माँ के ख़ातिर चलो इतना तो हम करें
चलो धरम की निष्ठुर दीवारें मिलकर आज मिटा दें!
“जननी जन्म भूमि स्वर्गादपि गरियसी”…..
एक स्वर में सब गा दें!
“जननी जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान है”
फिर से हम दुहरा दें।
🇮🇳 भारत माँ को शत-शत प्रणाम 🇮🇳
